"दो शेर और एक .कता" पेशे ख़िदमत है
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दो शेर
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दरे इलाह पे जाना सुकूँ का बाइस है
दिल - ए - शिकस्ता की वाहिद पनाहगाह है ये
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जो आ रहे हैं अक़ीदत से उन को आने दो
मेरे रसूल (स. अ.) की नज़रों में सब बराबर हैं
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.कता
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जो मुझ को क़ूवत ए गोयाई तूने की है अता
तो जुर्रतें भी अता कर कि सच को सच कह पाऊँ
मैं इस गुनाह की गठरी से चंद कम कर लूं
जो राह ए मालिक ए कौनैन पे क़दम रख पाऊँ
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