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रविवार, 7 अगस्त 2011

रोज़ा एक इबादत

रोज़ा एक इबादत
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जैसा कि आप सभी जानते हैं कि ये रमज़ान का मुक़द्दस और मुबारक महीना    
है और मैं इसी सिलसिले से आप के समक्ष कुछ विचार प्रस्तुत करना चाहती हूं ...पिछले दिनों अलग अलग अवसरों पर 
विभिन्न लोगों से मुलाक़ात हुई तो मुझे ये महसूस हुआ कि रमज़ान और रोज़ों के बारे में कुछ भ्रांतियां हैं जैसे_
-रोज़ा खोलने के पश्चात रोज़ेदार सहरी तक केवल खाता ही रहता है या
- रोज़े का अर्थ केवल खाना-पीना ही है या 
- रमज़ान में रोज़ेदार इतना खाते हैं कि वज़्न बढ़ जाता है और
- ये सारी बातें इस्लाम धर्म का हिस्सा हैं
परंतु जो भी व्यक्ति ऐसा समझता है उस में उस व्यक्ति की समझ का किंचित मात्र भी दोष नहीं है दोष तो उन का है जिन्होंने एक सार्थक और सामान्य सी प्रक्रिया को ग़लत रूप में संसार के सामने रखा है ,,,,इन भ्रांतियों के बारे में सुन कर मुझे महसूस हुआ कि ये मेरी भी ज़िम्मेदारी है कि सच्चाई सामने लाने वालों के साथ कुछ  मेरा भी योगदान हो .
रमज़ान इबादतों का एक पवित्र महीना है ,इस का ये मतलब कदापि नहीं कि साल भर हम इबादतें न करें बल्कि इस माह में रोज़ा एक अतिरिक्त इबादत है जो हम साल भर नहीं करते हैं .
रोज़े का अर्थ केवल खाने पीने से स्वयंको रोकना नहीं है बल्कि ये हमें अपनी इच्छाओं और भावनाओं पर नियंत्रण रखना सिखाता है जैसे क्रोध करना , किसी पर अत्याचार करना ,किसी का दिल दुखाना , किसी पर ग़लत नज़र डालना आदि
मैं ये मानती हूं कि कुछ लोग दिन भर की भूख प्यास के बाद इफ़्तार के समय बहुत अधिक और गरिष्ठ भोजन करते हैं 
लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिये ,,इस्लाम के अनुसार रोज़ा हमें नियमित जीवन से अलग नहीं करता बल्कि उन लोगों के दुख का एह्सास कराता है जिन का जीवन अभावों से घिरा हो ताकि हम अल्लाह की अ’ता की हुई ने’मतों का ग़लत इस्तेमाल न करें ,,,,इसलिये आवश्यकता से अधिक खाना पीना रोज़े के मक़सद को ख़त्म कर देता है .
मुहम्मद (स.अ.)साहब और उन के चाहने और मानने वाले जौ की सूखी रोटियों से इफ़्तार किया करते थे और यदि उस समय कोई याचक द्वार पर होता तो वह सूखी रोटी भी उसे दे कर ख़ुद भूखे रहते थे ,,इफ़्तार का अर्थ है रोज़ा
खोलना ,,रोज़ा किसी भी चीज़ से खोला जा सकता है लेकिन  रसूल अल्लाह (स.अ.) खजूर या नमक या गर्म पानी से ही रोज़ा खोलते थे ,तो यदि हमें उन के बताए हुए रास्तों पर चलना है तो इफ़्तार में आवश्यकता से अधिक खाना पीना ,,ईद पर बहुत अधिक ख़र्च करना जैसी चीज़ों को त्यागना होगा बल्कि जितने अधिक पुण्य के काम हम कर सकते हों करें और इस भावना को निरंतर आजीवन बनाए रखें ,,
धर्म को धर्म की तरह अपने जीवन में धारण करने के बजाय उस का ग़लत इस्तेमाल किसी भी तरह जायज़ नहीं ,,धर्म जीवन को 
अनुशासित करता है ,,सीधी सच्ची राह पर चलने की ताकीद करता है न कि जीवन के महत्वपूर्ण मूल्यों को त्यागने की ,,,,शायद मेरा ये प्रयास कुछ लोगों की ग़लतफ़हमी दूर कर सके .
धन्यवाद !!