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सोमवार, 21 दिसंबर 2009

                                                                            सलाम
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तू इल्म के दरिया में शनावर की तरह है
और हुब्बे अली ही तेरे यावर की तरह है

वो जिस की बदौलत हैं ज़मीं आसमां रौशन
अब्बास तो इस्लाम के खावर की तरह है

बातिल की जो राहों पे चला मैं ने ये पाया
इक जिस्म नहीं रूह भी लागर की तरह है

शब्बीर पे सब बेटों की क़ुर्बानियाँ दे दीं
माँ क्या कोई अब्बास की मादर  की तरह है

इस दश्त में शाह लाये थे चुन चुन के वतन से
हर कोई यहाँ लाल ओ जवाहर की तरह है

किस तर्ह गुनाहों की तलाफ़ी हो 'शेफ़ा' अब
हर एक गुनह शजर ए तनावर की तरह है  


4 टिप्‍पणियां:

  1. बातिल की जो राहों पे चला मैं ने ये पाया
    इक जिस्म नहीं रूह भी लागर की तरह है
    इस्मत, तुम्हारे इस ब्लॉग पर आ के बहुत सुकून मिलता है...लोबान और अगर की सुगंध सा अहसास...बहुत पावन सा लगता है. केवल लिखने के लिये नहीं लिख रही, यही सच है. तुम्हारी ये रचनायें, तुम्हारे अन्य गीत-गज़ल से कहीं बहुत बेहतर और सधी हुई हैं.

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  2. इस्मत साहिबा,
    इस ब्लाग पर आकर हमें अलग ही अहसास होता है..
    वंदना जी ने अपने शब्दों में काफी कुछ कह दिया है

    शब्बीर पे सब बेटों की क़ुर्बानियाँ दे दीं
    माँ क्या कोई अब्बास की मादर की तरह है
    क्या खूब कहा है आपने
    शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

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  3. vandana ,jab tum is blog par ati ho to bahut achchha lagta hai kyonki tum bahut achhi tarah samajh kar comment karti ho

    shahid sahab ,shukriya

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  4. वो जिस की बदौलत हैं ज़मीं आसमां रौशन

    अब्बास तो इस्लाम के खावर की तरह है
    इस्मत जी अल्लाह आपकी इस मुहब्बत इ मौला अब्बास को कुबूल करे. इसको बार बार पढने का दिल चाहता है. आँखें नाम हो जाती हैं . अल्लाह आप की हर परेशानी को दूर करे

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